कब सीखोगे तुम ,,
खाली पन्नों पर लिखे मेरे अल्फ़ाज़ पढ़ना,,,,
मेरी आवाज़ का नकाब हटाकर अपने कानों को मेरी खामोशी तक ले जाना,,,
और सुनना मेरी दर्द की आवाज को ,,,
कब सीखोगे तुम,,,
मेरी भटकी आंखों में अपना पता लगाना,,
पांचों उंगलियों में बंधी मेरी बंद मुट्ठी के ढीले पन को समझना ,,
मेरी दिल की रफ्तार को महसूस करना ,,,
कब सीखोगे तुम???????
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अनगढ ज़िन्दगी की भावनाओं की प्रस्तर शीला पर मैं |
न जाने कितने अमूर्त अभीलाशाओं को मूर्त रूप देती मैं |
यही मूर्त आकार चेहरों में ढल जाते है ,नकाब ओढ़ते है |
टकराते है ,प्रहार करते है ,
कभी कभी राहों से भटक जाते है,
जब राह पाना मुश्कील हो जाता है,
तब ........
तब यही मूर्त आकर आभासीत,
सपनोसे आकर खड़े हो जाते है |
तब ......
तब लगता है ......
की हम अपनी-अपनी सलीब उठाए जीवीत है |
हमारे साथ कि समाप्ति मुझे दुखी तो करती है,पर मेरे दिल को खाली
नहीं कर पाती,,क्यों कि उसे भरने के लिए, मैं अपना प्रेम उंडेल देती हूं
ज़र्रे ज़र्रे में ,,,,,
ताकि मेरे जिस्म में वो बून्द बून्द करके ,,,पिघलता रहे,,
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प्रज्ञा,,,,,,,
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