Sunday, 30 June 2019

कुछ कविता

बचे हुए रंगों में से
किसी एक रंग पर
उँगली रखने से डरती हूँ

मैं लाल, नीला केसरिया या हरा
नहीं होना चाहती 

मैं इन्द्रधनुष होना चाहती हूँ
धरती के इस छोर से
उस छोर तक फैला हुआ

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मैं कड़कती धूप हूं, मुझे छाया की तलाश है।
मैं प्यास हूं, मुझे पानी की तलाश है।
मैं बियाबान वीरानी हुं, मुझे घर की तलाश है।
मैं अकेली हूँ, साथी की तलाश है।
मैं........खैर जाने दो,
अपनी ही छाया में खड़ी हूंअपने से गले लगाकर रोना .........
नही,,,इतनी आसानी से नही रोती मैं,।मैं तो बाज़ हूं, जो जख्मी होकर दरख़्त की सबसे ऊंची टहनी पर जा बैठता हैं, चुपचाप, अकेला।
अपने ही जख्मों से शर्मसार.......

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मैं पेड़ बन जाऊं, तुम बरसना मुझपर,
धुँवाधार...
मेरी शाख, पात, तना, डाल सारी सारी तुम्हरे नीले पन में समाने दो,
और एक नई उम्मीद जागे, कुछ सपने पले,
सारे सपने मैं रखूंगी संजोकर,
सुखाउंगी उन्हें सांसों की आंच पर,
फिर उन्ही सपनों के तले,
अपना बीज बोऊँगी,,
तुम आना बरसात बनकर,,,
फिर एक बार,
हमारे सपनों के रंग देने...!

By

Pradnya Rasal

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