Wednesday, 31 July 2019

कविता


मैं चाहती हूँ
तुम आओ एक शाम
जब दिशाएँ शीतल हों
आसमान में लाली हो
गोधूलि हो चारों ओर
पंछी लौट रहे हों घर
एक अनन्त हरे मैदान में
हम चलेंगे 
शरीर से परे
आत्मा की भाँति
प्रकाश की तरह 
किसी न ख़त्म होने वाले पथ पर..

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मुहब्बत सबको आज़माती है मुझे - तुम्हें ,, इसे - उसे हर किसी को जो भी इसको या ये किसी को छू भर भी दे तो आज़मा लेती है,, सोचती भी नहीं कि बंदे/बंदी पर कैसी गुज़रेगी। 
मैं आजमाऊंगी अपनी मुहोंब्बत....
और फिर तुम्हारा छम से जाना, जैसे रूह में रब का उतर जाना,, जैसे जेठ की गर्मी में ओस से लिपटी घास का मिल जाना,, जैसे आषाढ़ मास में नाचता मोर दिख जाना।
कमबख़्त मुहब्बत कभी हारती नहीं, और दुआ भी यही है कभी हारे नहीं।
अच्छा लगता है अपनी छोटी छोटी ज़िद जीतना।
,, इश्क़ चल,,,आज तुझे होठों से लगा ही लेते है,,,देखते है,,तू मुझमें उतरता हैं.. या मैं तुझमें,,,

By

Pradnya Rasal


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