Wednesday, 20 March 2019

कुछ कविता

मेरे मन का प्रेम वृक्ष,,
बड़ा ही ढीठ है,,
तुम इसे काटकर क्या चले गए,,,
ये फिर से उग आया है,,,
तुम्हरे जज्बातों की टहनियाँ फैलने लगी है,,
यादों की शाखाएं, उभरने लगी है,,,
कच्ची कपोलें उग आई है,,
तुम्हारी सासों की महक के साथ,,,
मैं परेशान,,होकर,
तने को बार बार काटती हूँ,,
मगर ये फिर फिर पनप ही जाता है,,
तुम्हारी सूरत लेकर,,
कैसे मिटाऊंगी इसे,,
ये तो उग ही आएगा,,
भावों का हवा पानी पाकर 
आसुओं की नमी पाकर
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मैं एक पेड़ हूँ,
रोज लोग आकर मेरे पास बैठते है
अपना दुखड़ा रोते हैं
तरह तरह के लोग
किस्म किस्म के दुख
एकदिन मैंने कहा,,,
अंधेरे में आना,अपना दुख बांध जाना,,,सुबह जवाब मिलेगा,,
लोग आते गए, अपना दुख बांधते गए
सुबह,सुबह बड़ी भीड़ थी और सन्नाटा भी,
तभी मैंने कहा,पहले मेरे दुख को पढ़ लो,,,
मेरे दुख को अपने दुख के साथ रखकर देखो
किसका ज्यादा है
मेरा दुख कोई बांध सकता हैं?
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अब मेरे यहाँ कोई अपने दर्द बांधने नही आता,
क्यों???????
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पतझड़ के जाने तक
बहारों के आने तक
जेठ के जाने तक
सावन के आने तक
मैं तेरा इन्तजार करूँगी ....
अमावस की काली रात बीत जाने तक
पूनम की चांदनी रात आने तक
पूस की ठिठुरती रात बीत जाने तक
बंसत के आने तक
मैं तेरा इन्तजार करूँगी .....
सूरज के पूरब से पश्चिम आने तक
नभ पर चाँद डूब जाने तक
कयामत के आने तक
सदियां बीत जाने तक
मैं तेरा इन्तजार करूँगी.....
मेरा इश्क मुक्कमल हो जाने तक
या सांसो के टूट जाने तक
तुझे भूल जाने तक
या जिस्म से रूह आजाद हो जाने तक
मैं तेरा और सिर्फ तेरा इन्तजार करूँगी .....
प्रज्ञा,,,,,,,,

By 

Pradnya Rasal

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