मोक्ष मृगजल मात्र है, यातनाओं की सीमा के परे और नईं सीमाएं खींची जाएंगी...
अभी हो, अभी नहीं हो
तुम भी , जैसे कोई जादू हो
फ़र्ज़ करो,
सर्द रात हो,
कांगड़ी में चटकता कोयला
और गर्म साँसों की सरसराहट..
इसी बीच
गर
तुम्हें जी भर के देख लूँ
तो कहो..इश्क़ कैसे न हो !
प्रज्ञा,,,,
यादें....
समय की चरखी की डोर का भीतरी सिरा
मिलने और खुद को खो देने की बीच की कश्मकश
वर्तमान की व्याकुलता के ख़िलाफ़ उठता स्वर
अतीत के सुकून की बचे खुचे अवशेष
चाहूँ क्या जानू ना की दबी कसक
हसरतों के रस का निचोड़
यादें .......
प्रज्ञा,,
शाम के धुंधलके में
ओस की कुछ बूदें
पत्तों पर मोती-सी चहककर कह रही हैं
तुम यहीं तो हो
यहीं कहीं शायद मेरे आसपास
नहीं शायद मेरे करीब
ओह, नहीं सिर्फ यादों में
दूर कहीं किसी कोने में छुपे जुगनू से
जल बुझ, जल बुझ
भटका देते हो मेरे ख्यालों को
और भवरें-सा मन
जा बैठता है कभी किसी तो
कभी किसी पल के अहसास में
और तब तुम
दिल में उठती एक टीस की तरह
घर कर जाते हो दिलों दिमाग में......
प्रज्ञा,,,
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