Sunday, 2 August 2020

जलालउद्दीन रूमी

मौत के बाद मुझे कब्र मिले न मिले
मौत के बाद लोगों के दिल मे तो मैं बना रहूँगा।

ये रूमी के कब्र पर लिखा गया शिलालेख है,

रूमी अपने बारे में कहते है,

न मैं ईसाई हूँ, न यहूदी,
न पर्शियन न मुस्लिम
न पूर्व से न पश्चिम से
न जल से हूं न थल से,,

जलालउद्दीन रूमी (1207 --1273 )
का जन्म फारस में हुवा,,
आक्रमण से बचते हुवे इनका परिवार पैतृक भूमि कोन्या आकर बसा जो आज तुर्कस्तान है जिसे रोम भी कहते है।

आज से करीब आठ सौ साल पहले जन्मे रूमी ने धर्म,देश और काल की सभी बाधाओं को लांघकर अपनी रुबाइयों और ग़ज़लों से ऐसा सूफीवाद फैलाया कि वे संसार के सभी देशों में विशेषकर अमेरिका में सबसे अधिक पढ़े जाने वाले कवि माने जाते है।
उनका सूफियाना कलाम सैकड़ों वर्षोँ से लोकप्रिय हैं।उनके शब्दों ने विभिन्न संस्कृतियोंवाले पाठकों के मन को एक समान छुआ है।
आध्यात्मिक प्रेम के सहज अतिरेक और उसके वैभव से समृद्ध हमे ये किताब करती है।
प्रस्तुत संकलन में वे ही रचनाएँ चुनी गयी ही
जिसमे मौलिक राचाओं का स्पंदन है।
ये किताब गहरे विवेक का सौंदर्य, और रसास्वादन हमे देती हैं।

भाषा अत्यंत सरल है,,,
बहोत ही सरलता से समझा जा सकता है इस किताब के द्वारा "रूमी" को
मुझे हमेशा बाबा बुल्लेशाह और रूमी में कई साधर्म्य लगते है,,
दोनों ने सूफी पंथ का अंगीकार किया,,
कितनी अजीब बात है न इन दोनों का कार्यकाल अलग अलग है लेकिन लिखने का अंदाज बिल्कुल एक जैसा,,,

कुल मिलाकर किताब बहोत सरल है 
शब्द बिल्कुल सटीक है,,,
पढ़ने में आसानी होती है,,,
और आप पढ़ने का पूरा पूरा आनंद ले सकते हो,,,

रूमी के कुछ उदाहरण :--

1 )पक्षी है आत्मा
शरीर जंजीर के समान 
जो पक्षी के पांव में पड़ी है
उड़े तो कैसे
पाँव में जंजीर ,,,और पंख काटे हुवे है,,

2) मेरे मरने पर 
जला देना मुझे
मेरे शरीर से जो धुंवा उठेगा 
वह आकाश पर लिख देगा 
तेरा नाम , तेरा ही नाम।


बहोत उम्दा अनुवाद है,,
जरूर पढ़ें,,
"रूमी"
प्रज्ञा,,,,

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