चाँद ने आज मुस्कुराते हुए कहा
किस्सा ए दर्द छेड
आज सारी रात सुनेंगे,
सुनी अनसुनी दास्ताँ,
देर तक मैं साेचा किये,
दूर शफक पर,
ताराें की आँखे छलकती रही,
रात के दामन काे,
आहिस्ता-आहिस्ता
लम्हों का लहु ठंडा करता रहा ,
डुब कर रहे गये सारे सुकुन,
ताे चाँद की आखाें से भी,
कतरा ए दर्द टपका,
आैर मेरी कागज पर आ गिरा,,
प्रज्ञा,,,,,,
मेरे मन मे एक खिड़की है,,
बंद...
कभी कभी खोलती हूँ उसे...
झांकती हूँ उस पार
देर तक,
मेरे उस खिड़की से आगे न एक मोड़ है,
एक बड़ा सा गुलमोहर का पेड़ है उंस मोड़ पर
नजर जाती है मेरी...
लेकिन फिर मैं उसे वापस मोड़ लेती हूं,
मुझे पता है न तुम नही हो वहाँ
मेरी खिड़की से न दूर बहोत दूर एक ओझल सा एक चेहरा दिखाई देता है कभी कभी,,
मैं पुकारती हूँ..
क्या मेरी आवाज जाती होगी उस तक ?
फिर मेरा जी चाहता है कि मैं कूद जाऊँ,
लेकिन,,,लेकिन मैं डरती हूं
उस खिड़की से "मैं" बाहर आ गयी तो ..
अंदर की "वो" अकेली हो जाएगी
और अकेला पन बड़ा जानलेवा होता है...
,कोई खिड़की,कोई दरवाजा नाही होता..
फिर,,,
चुप्पी ,सन्नाटा,और.... और... मेरा मन,,,
फिर वहीं खिड़की,,,
प्रज्ञा,,,,,,,
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