तुम ज़रा सुनो तोतुम ज़रा सुनो तो
रुको, बैठो
कुछ बात तो करो
तुम्हें आँख भर देखना चाहती हूँ
जी भर सुनना चाहती हूँ
तुम्हारी साँसों को
अपनी साँसों संग
मिलाना चाहती हूँ
पर , तुम
चुपचाप, गुमसुम से
मेरे शानों पर छोड़ कर
एक ख़ामोश सी चुप्पी
चले जाते हो
नाम दे कर इसे
मुहब्बत का ।
वो बीता हुआ लम्हा
मेरी ज़िंदगी का
साँस ले रहा है
आज भी
मेरे भीतर
कही न कही
तभी तो अक्सर उतर आती है
मेरे स्मृति पटल पर
ओस से भीगी वो सुबह
और
महसूस करने लगती हूँ
तुम्हारी साँसों की गर्माहट को
मेरी साँसों के साथ
हालाँकि
वो उस की बूँदें
अब ठहर चुकी है
मेरी आँखों में दर्द बन कर
क्योंकि , नहीं जानती थी तैरना
ये भी ....
मेरी ही तरह ।
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