बडे होते ही, अपने अंदर की मासूमियत को अक्सर हम करा देते है चुप,
मानो जैसे ठान लेते है, बचपन था ठंडी छांव, और जिंदगी है कडकती धूप!
अपनी छोटी छोटी ख्वाहीशो को नजरअंदाज कर देते है अक्सर,
कभी कभी तो, अपनी या अपनों की बडी हसरतों के भी काट देते है पर!
भावनाओं को खुलकर करते नही व्यक्त,
ना आजकल किसी को लिखते है, पहले जैसे, दिलको छूनेवाला खत!
हां, सोशल मीडिया के जरीए हम आपस में सुबह से लेकर रात तक मेसेजेस की करते रहते है भरमार,
जिनमे जज्बातों की नमीं कम, सूखे लफ्जों की होती है बौछार!
अपनी शायरी से, हमारे इन सारे दबे-सीमटे जज्बातों से हमे फिर से रुबरू करा देते है गुलजार,
उनकी शायरी से, या तो फूल जैसी खिलती है हमारी हंसी-मुस्कान, या गम-ए-बेबसी से दिल होता है जार-जार!
गुलजार साहब को, ऐसे ही नही कहते गुलजार!!!
आकांक्षा
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